सबसे पुराना,सबसे बड़ा हिंदू रथ यात्रा और सबसे अधिक प्रसिद्ध माना जाने वाला रथयात्रा(पुरी)का इतिहास और महत्व भी सदियों पुराना है,यह एक विशाल उत्सव है,जिसे हर साल आषाढ़(जून जुलाई) के चन्द्र महीने के शुक्ल पक्ष में में धूमधाम से मनाया जाता है।
इस लेख में हम पढ़ेंगे:
1 रथ यात्रा की पौराणिक मान्यता |
2 इतिहास और महत्व |
3 ग्यारह चमत्कार |
1 रथ यात्रा की पौराणिक मान्यता
पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण (जगन्नाथ) अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ हर वर्ष अपनी मौसी (गुंडिचा माता) के घर जाते हैं। यह यात्रा 3 किलोमीटर लंबी होती है जो मुख्य मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक जाती है।यह रथयात्रा भारतवर्ष के ओडिशा राज्य के पुरी शहर में आयोजित होती है,इस उत्सव में भगवान जगन्नाथ जो कि कृष्ण जी के रूप है। भक्तों के विशाल भीड़ द्वारा लकड़ी के इस विशाल रथों को खींचा जाता है और खींचकर गुंडीचा मंदिर तक ले जाया जाता है,जहां एक सप्ताह रुककर जगन्नाथ मंदिर वापस लौट जाते है। इस वापसी यात्रा को बहुदा यात्रा कहा जाता है।
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मान्यताओं में भगवान जगन्नाथ मंदिर के बारे में भी अनेकों मान्यताएं है जो कि इस प्रकार है ।
1 ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु जी जब चार धाम यात्रा पर जाते है तो बद्रीनाथ में स्नान द्वारिका में वस्त्र धारण जगन्नाथ में आहार और रामेश्वरम में विश्राम करते है।
2 पुराणों में पुरी को धरती का वैकुंठ कहा गया है, जहाँ भगवान विष्णु साक्षात निवास करते हैं। यह भगवान विष्णु के चार प्रमुख धामों में से एक है और इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरी तथा श्रीजगन्नाथ पुरी जैसे कई नामों से जाना जाता है। यह स्थान न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि भारतीय संस्कृति और जनजातीय परंपराओं का अद्भुत संगम भी है।
यहाँ लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने विविध लीलाओं का प्रकट रूप दिखाया। ब्रह्मा और स्कंद पुराणों के अनुसार, भगवान विष्णु ने यहाँ नीलमाधव के रूप में अवतार लिया और आदिवासी सबर जनजाति के पूज्य देवता बन गए। इस प्रकार जगन्नाथ केवल आर्य परंपरा के देवता नहीं, बल्कि आदिवासी श्रद्धा और संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।
भगवान जगन्नाथ का स्वरूप कबीलाई (जनजातीय) देवताओं जैसा है, क्योंकि आदिवासी परंपरा में मूर्तियाँ लकड़ी से बनाई जाती थीं और यही परंपरा जगन्नाथ मंदिर में आज भी देखी जा सकती है। मंदिर के मुख्य देवताओं – भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ भी नीम की लकड़ी से बनाई जाती हैं, और हर 12 वर्षों में ‘नवकलेवर’ नामक पवित्र परंपरा के अंतर्गत इन मूर्तियों का नवीनीकरण किया जाता है।
जगन्नाथ मंदिर की एक अनोखी विशेषता यह है कि यहाँ ब्राह्मण पुजारियों के साथ-साथ सबर जनजाति के पुजारी भी पूजा करते हैं। विशेष रूप से ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक, सबर जाति के पुजारी ही भगवान जगन्नाथ की सेवा करते हैं और रथयात्रा सहित कई विशेष अनुष्ठान उनकी देखरेख में संपन्न होते हैं।यह समावेशी परंपरा दर्शाती है कि भारतीय धार्मिकता केवल ग्रंथों में नहीं, बल्कि विभिन्न जातियों, समुदायों और संस्कृतियों के आपसी सम्मान और सहभागिता में जीवित है।
3 पुराणों के अनुसार नीलगिरि पर्वत पर स्थित श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र में भगवान हरि की पूजा की जाती है। इस क्षेत्र में भगवान हरि को श्रीराम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। मत्स्य पुराण, जो कि सबसे प्राचीन पुराणों में से एक है, उसमें उल्लेख है कि इस पवित्र भूमि की अधिष्ठात्री देवी ‘विमला’ हैं, और भगवान जगन्नाथ की पूजा तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक देवी विमला की अर्चना न हो जाए।
रामायण के उत्तरकांड के अनुसार, भगवान श्रीराम ने रावण-वध के पश्चात अपने अनुज समान रावण के भाई विभीषण को इक्ष्वाकु वंश के कुल-देवता श्रीजगन्नाथ की आराधना करने की प्रेरणा दी। यही कारण है कि आज भी पुरी के श्रीमंदिर में विभीषण वंदना की परंपरा जीवित है और विशेष अवसरों पर यह परंपरा बड़ी श्रद्धा से निभाई जाती है।यह परंपरा यह दर्शाती है कि भगवान जगन्नाथ केवल एक विशेष संप्रदाय या वर्ग के नहीं, बल्कि वे सभी भक्तों के आराध्य हैं—चाहे वे आर्य परंपरा से हों, द्रविड़ संस्कृति से, या जनजातीय आस्था से। पुरी धाम विविध परंपराओं का संगम है, जहाँ भक्ति, समर्पण और एकता की गंगा निरंतर बहती है।
4 स्कंद पुराण में जगन्नाथ पुरी की भौगोलिक संरचना का बड़ा ही रोचक वर्णन मिलता है। इसके अनुसार पुरी का स्वरूप एक दक्षिणावर्ती शंख (दक्षिण दिशा की ओर मुड़ा हुआ शंख) के समान है। यह पवित्र क्षेत्र लगभग 5 कोस यानी लगभग 16 किलोमीटर तक फैला हुआ है। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र का लगभग दो कोस भाग बंगाल की खाड़ी में विलीन हो चुका है।पुरी का गर्भस्थल या “उदर” समुद्र की वह स्वर्णिम रेत है जिसे “महोदधि” यानी महान समुद्र निरंतर अपने पवित्र जल से धोता रहता है। पश्चिम दिशा में स्थित पुरी का “शंख का शिरोभाग” वह क्षेत्र है जिसकी रक्षा स्वयं भगवान महादेव करते हैं। इसे ‘लोकनाथ महादेव’ कहा जाता है।
शंख की दूसरी परिधि में भगवान शिव का एक और रूप — ब्रह्मा-कपाल मोचन — विराजमान हैं। मान्यता है कि ब्रह्मा जी का एक सिर महादेव के क्रोध से कटकर उनकी हथेली में चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा। तभी से इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा ब्रह्मरूप में की जाती है, जिसे ‘ब्रह्मकपाल मोचन’ कहा जाता है।शंख के तीसरे वृत्त या घेरे में देवी विमला विराजती हैं, जो इस तीर्थ की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। जब तक भगवान जगन्नाथ को देवी विमला का नैवेद्य नहीं अर्पित किया जाता, तब तक उनकी पूजा अधूरी मानी जाती है।
पुरी के केंद्र में भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा जी अपने रथ-सिंहासन पर विराजमान हैं। यह स्थान न केवल तीर्थों का तीर्थ है, बल्कि यहां का हर कण आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण माना जाता है।यह अनूठा भूगोल केवल एक पौराणिक कल्पना नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक वास्तुशास्त्र और तीर्थ विज्ञान का एक जीवंत उदाहरण है।
2 रथयात्रा (पुरी) का इतिहास और महत्व
🛕 मंदिर का इतिहास — एक गौरवशाली विरासत
पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर को न केवल एक धार्मिक स्थल माना जाता है, बल्कि यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक और स्थापत्य कला का एक अद्भुत उदाहरण भी है। वर्तमान में जो मंदिर खड़ा है, उसका निर्माण 7वीं शताब्दी में करवाया गया था, लेकिन इसकी जड़ें इससे कहीं अधिक प्राचीन हैं।
📜 प्राचीनतम इतिहास
ऐतिहासिक सूत्रों और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस स्थान पर एक मंदिर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में भी मौजूद था। यानी आज से लगभग 2200 साल पहले भी यह क्षेत्र धार्मिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण था। इससे यह प्रमाणित होता है कि पुरी सदियों से भक्ति और अध्यात्म का केंद्र रहा है।
⚔️ तीन बार हुआ विध्वंस
इतिहास में यह मंदिर तीन बार नष्ट किया गया। इसका कारण था बार-बार होने वाले विदेशी आक्रमण और प्राकृतिक आपदाएँ। हर बार जब मंदिर टूटा, तो श्रद्धालुओं और शासकों ने मिलकर इसे दोबारा खड़ा किया।
यह मंदिर केवल पत्थर की नहीं, बल्कि आस्था और दृढ़ संकल्प की भी कहानी है।
👑 1174 ई. का पुनर्निर्माण
1174 ईस्वी में ओडिशा के महान शासक अनंग अनंग भीमदेव ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार करवाया।उन्होंने न सिर्फ इसे भव्यता दी, बल्कि मंदिर की चारदीवारी के भीतर लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिरों की स्थापना भी करवाई।इन मंदिरों में देवी-देवताओं की विविध मूर्तियाँ विराजमान हैं, जो इस संपूर्ण क्षेत्र को एक धार्मिक परिसर का स्वरूप देती हैं।
🛕 राजा इन्द्रद्युम्न और जगन्नाथ मंदिर का निर्माण
पुरी स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर का इतिहास केवल स्थापत्य का नहीं, बल्कि धार्मिक दर्शन, स्वप्न और ईश्वरीय प्रेरणा की कथा है। इस मंदिर के निर्माण से जुड़ी सबसे प्राचीन और प्रमुख कथा राजा इन्द्रद्युम्न से जुड़ी है।
👑 राजा इन्द्रद्युम्न कौन थे?
राजा इन्द्रद्युम्न मालवा के एक महान शासक थे।उनके पिता का नाम भारत और माता का नाम सुमति था।वे अत्यंत धार्मिक, परोपकारी और विष्णु भक्त राजा माने जाते थे।
🌌 स्वप्न में हुआ जगन्नाथ के दर्शन का संकेत
एक रात राजा इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में भगवान विष्णु (जगन्नाथ) के दर्शन हुए।स्वप्न में उन्हें आदेश मिला कि वह पूर्व दिशा में समुद्र के किनारे एक दिव्य मूर्ति की खोज करें और वहां भगवान का मंदिर बनवाएं।इस स्वप्न ने राजा को आंतरिक रूप से झकझोर दिया और उन्होंने इसे ईश्वरीय आज्ञा माना।
🧭 यात्रा और तपस्या🧭
इसके बाद राजा ने कई विशाल धार्मिक यात्राएं कीं। वे कई तीर्थों में गए और अनेक ऋषियों-मुनियों से परामर्श लिया।उन्होंने समुद्र तट पर एक विशाल सरोवर (जलाशय) भी बनवाया, जो आज भी “इन्द्रद्युम्न सरोवर” के नाम से प्रसिद्ध है।
📚 शास्त्रों और पुराणों में उल्लेख📖
राजा इन्द्रद्युम्न और उनकी इस यात्रा का वर्णन स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण, और पद्म पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।इन ग्रंथों में बताया गया है कि उन्होंने तपस्या करके भगवान नीलमाधव के स्थान पर जगन्नाथ रूप में श्रीहरि की स्थापना की।
🛕 मंदिर का निर्माण🛕
भगवान की मूर्ति समुद्र तट पर एक दिव्य काष्ठ (लकड़ी) से बनी थी, जिसे “दारु ब्रह्म” कहा गया।उसी दारु ब्रह्म से जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ बनीं।राजा इन्द्रद्युम्न ने उसी स्थान पर पहला जगन्नाथ मंदिर बनवाया।
✨ प्रभाव और महिमा✨
इस मंदिर का निर्माण न केवल एक वास्तु कार्य था, बल्कि यह भक्ति, समर्पण और ईश्वर से सीधा संबंध जोड़ने का प्रयास था।आज भी मंदिर में पूजा-पद्धति और परंपराएं उसी आदिकालीन नियमों के अनुसार होती हैं, जिनकी नींव राजा इन्द्रद्युम्न ने रखी थी।यदि आप चाहें, तो मैं राजा इन्द्रद्युम्न पर एक बाल-कहानी, शॉर्ट फिल्म स्क्रिप्ट, या कॉमिक स्टाइल में यह कथा बना सकता हूँ।
🪄11 चमत्कार🪄
1 हवा के विपरीत लहराता ध्वज
पुरी स्थित श्रीजगन्नाथ मंदिर के शिखर पर जो लाल ध्वज फहराया जाता है, वह एक ऐसा रहस्य है जो विज्ञान को भी हैरान कर देता है। यह ध्वज सदैव हवा की दिशा के विपरीत लहराता है, चाहे हवा कहीं से भी क्यों न चल रही हो। सामान्यतः किसी वस्तु को हवा में उड़ने के लिए उसके साथ हवा की दिशा का होना ज़रूरी होता है, लेकिन इस ध्वज के साथ ऐसा नहीं होता।इस अद्भुत घटना का कोई ठोस वैज्ञानिक कारण अभी तक प्रमाणित नहीं हो पाया है, जिससे यह और भी रहस्यमय और चमत्कारी बन जाता है। यह निश्चित ही एक अद्भुत और आस्था को गहराई से झकझोर देने वाला दृश्य है।
और तो और, हर दिन सायंकाल एक विशेष परंपरा के अनुसार इस ध्वज को एक व्यक्ति द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है — बिना किसी मशीन या आधुनिक साधन के। यह भी आश्चर्य की बात है कि यह परंपरा सदियों से एक ही शैली में निभाई जा रही है। मान्यता है कि इस ध्वज पर भगवान शिव का चंद्रचिह्न अंकित होता है, जिससे इसकी पवित्रता और शक्ति और भी बढ़ जाती है।
2 गुंबद की छाया न बनना
श्रीजगन्नाथ मंदिर का मुख्य गुंबद न केवल ऊँचाई में भव्य है, बल्कि इसकी वास्तुकला ऐसी रहस्यमयी है कि इसकी छाया दिन के किसी भी समय ज़मीन पर नहीं दिखाई देती। यह बात सुनने में भले ही असंभव लगे, परंतु यह एक ऐसा चमत्कार है जिसे हजारों लोग हर दिन पुरी जाकर स्वयं अनुभव करते हैं।मंदिर लगभग 4 लाख वर्ग फुट क्षेत्र में फैला हुआ है और इसकी ऊँचाई 214 फीट (लगभग 65 मीटर) है। यह इतना विशाल और ऊँचा है कि दूर से भी इसकी भव्यता मन मोह लेती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति मंदिर के पास खड़ा होकर गुंबद को देखने की कोशिश करता है, तो वह चौंक जाता है — क्योंकि उस ऊँचे गुंबद की कोई स्पष्ट छाया ज़मीन पर नहीं पड़ती!
कई विद्वानों का मानना है कि मंदिर की बनावट, उसकी दिशा, ऊँचाई और वास्तु योजना इस तरह की गई है कि सूरज की किरणें उसकी छाया को कभी एक जगह स्थिर नहीं बनने देतीं। यह भी सिद्ध करता है कि हमारे पूर्वज न केवल धार्मिक रूप से प्रखर थे, बल्कि वास्तु, खगोल और निर्माण विज्ञान के गहरे ज्ञाता भी थे।यह भव्य मंदिर, जिसे 7वीं शताब्दी में वर्तमान रूप में निर्मित किया गया था, आज भी मानव कौशल और दिव्यता का जीता-जागता उदाहरण है।
3 महाप्रसाद का न कम होना न व्यर्थ जाना
श्रीजगन्नाथ मंदिर की रसोई (जिसे रोजगार रसोई या महाप्रसाद भंडार कहा जाता है) दुनिया की सबसे बड़ी और व्यवस्थित मंदिर रसोइयों में से एक मानी जाती है। यहां हर दिन 50,000 से अधिक लोगों के लिए भगवान का भोग (महाप्रसाद) पकाया जाता है, और त्योहारों या विशेष दिनों पर यह संख्या 1 लाख तक पहुँच जाती है।सबसे अद्भुत बात यह है कि यहां प्रसाद सात मिट्टी के बर्तनों में एक के ऊपर एक रखकर पकाया जाता है, और ऊपरी बर्तन का खाना पहले पकता है, नीचे का बाद में — जो कि सामान्य भौतिकी के विरुद्ध है।और एक और गहरा चमत्कार — कभी भी महाप्रसाद न कम पड़ता है, न ही व्यर्थ जाता है। चाहे 5 लोग आएं या 50 हज़ार, हर किसी को भरपूर प्रसाद मिलता है और अंत में कोई अन्न फेंका नहीं जाता। ऐसा लगता है जैसे स्वयं भगवान भोजन की व्यवस्था कर रहे हों।
4 सुदर्शन चक्र — जो हर दिशा से सीधा दिखता है!
श्रीजगन्नाथ मंदिर के शिखर पर एक दिव्य सुदर्शन चक्र स्थित है, जिसे “नीलचक्र” भी कहते हैं। यह चक्र 8 धातुओं (अष्टधातु) से निर्मित है और इसका वजन लगभग 2200 किलो है।
चमत्कार यह है कि — चाहे आप मंदिर के चारों ओर किसी भी दिशा में खड़े हों, यह चक्र आपको हमेशा सामने की ओर मुड़ा हुआ ही दिखाई देता है! यानी इसका मुख हमेशा आपकी ओर प्रतीत होता है, जैसे वह भक्त से सीधा संवाद कर रहा हो।यह न केवल एक धार्मिक प्रतीक है, बल्कि वास्तुकला और दृष्टि-भ्रम (optical illusion) का अनूठा उदाहरण भी है। इसे देखने के बाद लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
5 सिंहद्वार से भीतर जाते ही समुद्र की ध्वनि शांत
सिंहद्वार पार करते ही समुद्र की आवाज़ अदृश्य हो जाती है!पुरी का जगन्नाथ मंदिर बंगाल की खाड़ी के ठीक किनारे पर स्थित है। बाहर खड़े होकर जब आप मंदिर की ओर बढ़ते हैं, तो समुद्र की लहरों की तेज़ गर्जना साफ़ सुनाई देती है — एक सजीव, गूंजती हुई ध्वनि। लेकिन जैसे ही आप मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार – सिंहद्वार से भीतर प्रवेश करते हैं, अचानक वह समुद्र की आवाज़ पूरी तरह शांत हो जाती है, मानो किसी ने उसे रोक दिया हो।
यह प्रभाव इतना स्पष्ट होता है कि कई बार लोग बाहर आकर दोबारा सुनते हैं, और फिर वापस जाकर चकित रह जाते हैं। वास्तुविद मानते हैं कि यह मंदिर की ऊँचाई, दिशा और द्वार की बनावट का एक अद्भुत संयोजन है। परंतु श्रद्धालु इसे भगवान की कृपा मानते हैं — कि जब भक्त भगवान के चरणों में प्रवेश करता है, तो संसार की सभी आवाज़ें शांत हो जाती हैं।
6 मूर्तियों का रहस्य – धड़कता है दिल और होती है सांस!
श्रीजगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्तियाँ किसी सामान्य मूर्ति जैसी नहीं हैं। ये मूर्तियाँ नीम की लकड़ी से बनी होती हैं, जो हर 12 साल में एक विशेष अनुष्ठान ‘नवकलेवर’ के माध्यम से बदली जाती हैं।लेकिन चमत्कार तब होता है जब इन मूर्तियों में से भगवान का ‘ब्रह्म तत्त्व’ (एक दिव्य रहस्यात्मक शक्ति) स्थानांतरित किया जाता है। इस अनुष्ठान के दौरान सबकुछ रात में, पर्दे के पीछे होता है — यहां तक कि पुजारी की आंखों पर पट्टी बंधी होती है, क्योंकि यह ऊर्जा इतनी तीव्र मानी जाती है कि इसे देखना भी सामान्य मानव के लिए कठिन है।
माना जाता है कि मूर्तियों में स्पंदन होता है, वे साँस लेते हैं, और उनमें हृदय जैसी हलचल तक अनुभव की जाती है — यह श्रद्धा के उच्चतम स्तर की अनुभूति है। भक्तों के अनुसार, भगवान केवल दर्शन देने के लिए ही नहीं, सशरीर इस धाम में वास करते हैं।
7 रथयात्रा में रथ का न चलना और फिर अपने-आप चल पड़ना
पुरी की श्रीजगन्नाथ रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विशाल रथ सजे-धजे नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। इन रथों को खींचने के लिए हज़ारों की संख्या में भक्त रस्सियों को थामते हैं, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि रथ अपनी जगह से हिलता ही नहीं है — मानो कोई अदृश्य शक्ति उसे रोक रही हो।यह घटना विशेष रूप से तब देखी जाती है जब रथ को खींचने से पहले राजपरिवार का कोई व्यक्ति या प्रमुख सेवायत पूजा करता है। जैसे ही वह विधिवत पूजा सम्पन्न करता है और अनुमति देता है, रथ अपने आप चलने लगता है, और भीड़ में हर्ष की लहर दौड़ जाती है।लोग इसे भगवान की स्वेच्छा से यात्रा प्रारंभ करने का संकेत मानते हैं। यह चमत्कार हर वर्ष हजारों भक्तों के सामने घटता है और सबका रोम-रोम भक्तिभाव से भर जाता है।
8 मंदिर का निर्माण — पत्थर पर तैरती नींव!
श्रीजगन्नाथ मंदिर की नींव से जुड़ा एक और रहस्य अत्यंत रोचक और आश्चर्यजनक है। कहा जाता है कि इस भव्य मंदिर का निर्माण समुद्र के बिल्कुल पास, रेतीली भूमि पर किया गया था — जहाँ भारी संरचना टिक पाना असंभव है। लेकिन फिर भी यह मंदिर सदियों से अडिग खड़ा है।मौखिक परंपरा और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, मंदिर की नींव में कुछ ऐसे विशेष पत्थर (शिलाएं) लगाई गईं थीं जो पानी में डूबती नहीं, बल्कि तैरती हैं। यह रहस्य आज भी लोगों के मन में है कि इतनी विशाल संरचना कैसे इतने वर्षों से बिना धंसे या झुके खड़ी है?
कुछ विशेषज्ञ इसे प्राचीन भारतीय स्थापत्य कौशल, वज्रनाभ वास्तु और समुद्र के प्रवाह की दिशा के अनुसार बना हुआ बताते हैं, लेकिन भक्त इसे ईश्वर की लीला और वास्तु-देवताओं की कृपा मानते हैं।
9 मंदिर के भीतर पक्षी या विमान नहीं उड़ते
पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर समुद्र के पास खुला, विशाल क्षेत्र में स्थित है। मंदिर की ऊँचाई लगभग 214 फीट है और आसमान में खुला दिखाई देता है। इसके बावजूद एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि —
मंदिर के ऊपर से न तो कोई पक्षी उड़ता है, और न ही कोई विमान!चाहे कितनी भी चील, कबूतर या अन्य पक्षी आसपास हों, मंदिर के शिखर के ठीक ऊपर उनका आना मानो निषिद्ध हो। न कोई घोंसला, न कोई परछाईं। आधुनिक विज्ञान इसके पीछे चुंबकीय क्षेत्र, ऊर्जा मंडल, या वायुगतिकीय प्रभाव जैसे तर्क दे सकता है, लेकिन आज तक कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया है।भक्तजन मानते हैं कि मंदिर के ऊपर दिव्य ऊर्जा क्षेत्र है — जो केवल पवित्र और सूक्ष्म ऊर्जा को ही वहाँ आने देता है।
10 लकड़ी की मूर्तियाँ जिनमें आत्मा बसती है — “ब्रह्म पदार्थ”
श्रीजगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ सामान्य पत्थर की नहीं, बल्कि नीम की विशेष लकड़ी से बनी होती हैं। हर 12 वर्ष में इन मूर्तियों को बदला जाता है — इस प्रक्रिया को कहा जाता है “नवकलेवर”।
लेकिन केवल मूर्ति बदलना ही रहस्य नहीं है।सबसे चमत्कारी बात यह है कि पुरानी मूर्ति से एक रहस्यमयी दिव्य तत्त्व — जिसे “ब्रह्म पदार्थ” कहा जाता है — को नई मूर्ति में स्थानांतरित किया जाता है। यह अनुष्ठान इतना गोपनीय होता है कि इसमें शामिल पुजारियों की आंखों पर पट्टी बंधी होती है, और पूरे मंदिर परिसर को बंद कर दिया जाता है।
माना जाता है कि यह तत्त्व भगवान का सजीव स्वरूप है, जो न केवल चैतन्य है, बल्कि उसमें धड़कन, ताप, और जीव जैसी ऊर्जा होती है। इस दौरान वातावरण में भारी कंपन, दिव्य गंध और गूंज का अनुभव होता है।यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहाँ मूर्तियाँ केवल प्रतीक नहीं हैं, बल्कि जीवित आत्मा के साथ स्वयं भगवान का वास है।
11 जगन्नाथ मंदिर की तीसरी सीढ़ी का रहस्य – “यम शिला” की कथा
पुरी स्थित श्रीजगन्नाथ मंदिर में जहाँ एक ओर अनेक दिव्य चमत्कार देखने को मिलते हैं, वहीं इस मंदिर की मुख्य सीढ़ियों में छिपा एक गूढ़ रहस्य भी है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। यह रहस्य जुड़ा है मंदिर की तीसरी सीढ़ी से — जिसे ‘यम शिला’ कहा जाता है।
🔱 कथा का आरंभ: जब यमराज पहुंचे भगवान जगन्नाथ के पास
एक समय की बात है, जब भगवान जगन्नाथ के दिव्य दर्शन मात्र से भक्तों के सारे पाप समाप्त होने लगे थे। लोग जन्म-जन्मांतर के कर्म बंधनों से मुक्त होकर सीधे मोक्ष प्राप्त कर रहे थे। यह देखकर यमराज चिंतित हो उठे। उन्होंने सोचा कि अगर ऐसे ही चलता रहा, तो कोई भी प्राणी यमलोक में नहीं आएगा।
यमराज जी भगवान जगन्नाथ के पास पहुंचे और निवेदन किया,”प्रभु! आपने अपने दर्शन मात्र से पापों का ऐसा सरल समाधान बना दिया है कि लोग बिना कर्मों का फल भोगे ही मुक्ति पा रहे हैं। यमलोक में कोई नहीं आ रहा।”
अस्वीकरण –
यह लेख पाठकों की जानकारी के लिए है जो कि गहन अध्ययन एवं शोध पर आधारित है, इतिहासकारों के अलग अलग विचार हो सकते हैं।
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